वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महात्मा गाँधी एवं स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक एवं शैक्षिक विचारों की प्रासांगिकता
Keywords:
‘नई तालीम’, ‘बुनियादी शिक्षा’’‘वर्धा शिक्षा आयोग’, नव्य-वेदान्त दर्शन, विश्वशान्ति, अष्टांगिक मार्गAbstract
जिस समय विश्व के अन्य किसी भी भाग में चित्त मानव चिन्तन का कोई रूप मुखरित नहीं हुआ था अर्थात् ईसा के कई शताब्दियों पूर्व भी भारतीय चिन्तकों के सूत्र-सिद्धान्तों ने भारत को विश्व-गुरू के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित कर दिया था। भारतीय चिन्तन की यह परम्परा वास्तव में वैदिक युग से लेकर आज तक अक्षत रूप से गतिशील है। हमारे इस चिन्तन का आधार हमारा गौरवशाली अतीत ही है, किन्तु आज उस पर वर्तमान की छाप भी प्रबल रूप से अपना प्रभाव बनाये हुए है। यहाॅं यह भी निःसंकोच कहा जा सकता है कि यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज हमारी आॅंखों पर लगे चश्मे के ‘लैंसों’ को पश्चिमी रंग से इतना गहरा रंग दिया गया है कि भारतीय श्रेष्ठता एवं महानता कई बार अविश्वासी सी प्रतीत होने लगती है। हम अपने गौरवमयी अतीत को भूलने के साथ-साथ यह भी भूल जाते है कि 19वीं शताब्दी में ही स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस सरीखे चिन्तकों और दार्शनिकों ने विश्व के सामने भारत की महानता को प्रकट किया है। भारत में यद्यपि बहुत समय से इस बात का अनुभव किया जाता रहा है कि भारतीय नागरिकों में व्याप्त निरक्षरता को समाप्त किया जाना चाहिए, परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् तो स्वतंत्र नागरिकों को स्वतंत्रता की सुरक्षा और प्रगति के लिए तैयार करने के उद्देश्य से जनमत को सफल बनाने के प्रयास आवश्यक प्रतीत हुए, जनमत की सफलता साक्षरता पर आधारित होती है। अतः साक्षरता के प्रसार के लिए प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता पर बल देेना पड़ा जो हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सर्वोत्तम उपहार है। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इसी उपहार को ‘नई तालीम’, ‘बुनियादी शिक्षा’’ और ‘वर्धा शिक्षा आयोग’ के नामों से भी पुकारा जाता है। हमारे महा-मनीषी स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, ‘‘भारत में विदेशियों को आने दो, शस्त्र-बल से जीतने दो, किन्तु हम भारतीय अपनी आध्यात्मिकता से समस्त विश्व को जीत लेंगे। प्रेम घृणा पर विजय पायेगा। हमारी आध्यात्मिकता पश्चिम को जीत कर ही रहेंगी।’’
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